Inspiring Fighting Story Of "TIGER" Pataudi (Hindi)

                   Mansur Ali Khan "TIGER " Pataudi


"जब वो पानी का ग्लास उठाने जाते तो कुछ इंच के फासले से चूक जाते थे।  तो एक बॉलर के लाइन और लेंथ को समझने में कितनी परेशानी आ सकती हैं।  मगर एक्सीडेंट के एक महीने बाद वो नेट पर थे।"



किसी भी खेल सम्बन्धी कठिनाइयों का मुकाबला करने का प्रयत्न करना उसकी योग्यता हैं।  
क्रिकेट के खेल में कई ध्यान आकर्षित करने वाले खिलाड़ी रहे हैं, जिन्होंने रोंगटे खड़े करने वाली आत्म शक्ति से सम्भावनाओ से भी अधिक सफलता प्राप्त की हैं।   भारत के क्रिकेट इतिहास में शायद मंसूर अली खान पटोदी इसके उत्कृष्ट  उदाहरण हो सकते हैं। मध्यमक्रम के बल्लेबाज और देश के महान  कप्तानो में जिनकी गणना  हैं।

Mansur Ali Khan  का जन्म राजघराने में हुआ था।  क्रिकेट से इनका रिश्ता जन्म से  ही जुड़ा हुआ था , उनके पिता इफ्तिखार अली खान 1932 -33 में  इंग्लैंड के लिए   ( Bodyline सिरीज़ में  ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध ) और 1946 में इंग्लैंड के खिलाफ भारत  के कप्तान थे । क्रिकेट उनका जूनून और पेशा था , जब वे  Oxford University  पढने के लिए गए , तब उन्होंने तय किया की वे इसी खेल में आगे बढ़ेंगे।

 University में उन्हें इंग्लैंड का बेस्ट युवा खिलाड़ी के रूप में प्रचारित किया जाता था।  वह एक साहसी , करिश्माई खिलाड़ी था , ऐसा ज्ञात होता की क्रिकेट के  दुनिया की जीत उसके दरवाजे पर खड़ी हो।

त्रासदी ने मारा  :- बिना कोई पूर्व अंदेशे के और बिलकुल सदमा पहुचाने की तरह मंसूर अली पटोदी का क्रिकेट का भविष्य पूर्णरूप से नष्ट हो गया।  एक कार अकस्मात की वजह से काँच का एक टुकड़ा उनकी दाहिनी आँखों में चला गया. हालांकि अच्छे से अच्छे ईलाज के बावजुद उनकी आँखों की 95 % रोशनी चली गई।  

Mansur Ali Khan सिर्फ 20  साल के थे  उस समय।  तकलीफ  यह थी की द्रष्टि की दुर्बलता की वजह से बड़ी मुश्किल से देख पाते थे , जब वो पानी का ग्लास उठाने जाते तो कुछ इंच के फासले से चूक जाते थे। तो एक बॉलर के लाइन और लेंथ को समझने में कितनी परेशानी आ सकती हैं।   मगर एक्सीडेंट के एक महीने बाद वो नेट पर थे। लगभग एक दशक बाद उनके सर जिम्मेदारी थी, उन्होंने भारतीय क्रिकेट टीम को आत्मा विश्वास से भरी एक नयी मजबूती दी ,हमेशा की तरह पराजयवाद से अलग एक जितने वाली टीम। पटोदी की कप्तानी   में भारतीय टीम ने पहले कभी नहीं थे ऐसे चार स्पिनरों ( बेदी, प्रसन्ना , चंद्रशेखर ,वेंकटराघवन )की अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चौकड़ी मिली जो अपने कार्य और हुनर के हीरो थे।  यह समय  भारतीय क्रिकेट के पूर्ण जागरण काल  था ।

व्यक्तिगत तौर पर पटोदी ने , स्टैम्प खोलकर खेलने  का तरीका अपनाया था , इससे उन्हें बॉल को देखने की अच्छी दृष्टि  मिल जाती थी। वे एक्सीडेंट के पहले की तरह तो कभी खेल नहीं पाये मगर ऊँचे दर्जे का खेल जरूर खेले और उन्होंने टेस्ट क्रिकेट में 6 शतक मारे। वे अपने समय के एक बहुत ही शानदार फील्डर रह चुके थे।  उनकी स्फूर्ति,  तेज गति की फील्डिंग की वजह से उन्हें " TIGER " के उप नाम से भी जाना जाता हैं । 

ऐसी क्या था की पटोदी ऐसी तोड़नेवाली, दुर्बल करने वाली  चोट से निकल कर श्रेष्ठता की ऊँची चोटी पर पहुँचे ?
" ऐसा कभी नहीं हो सकता की, मैं क्रिकेट खेलने नहीं जाऊ " वे फिर कहते हैं की , "मैं ऐसी मानसिकता  को स्वीकार नहीं करता, नकारात्मक विचारो को निकाल कर और जो जरुरी बदलाव करने हैं करूँगा।"  उनकी हिम्मत और जीवन के बड़े सकारात्मक दृष्टिकोण से जो निकला , वह क्रिकेट इतिहास की उल्लेखनीय कहानी हैं।



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